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वर्ष छ:, अंक – 24 9 Oct 2012 | 08:47 am

विरासत में 'काशीनाथ सिंह' की कहानी 'तीन काल कथा' यह वाकया दुद्धी तहसील के एक परिवार का है। पिछले रोज चार दिनों से गायब मर्द पिनपिनाया हुआ घर आता है और दरवाजे से आवाज देता है। पूरा पढने के लिये यहाँ ...

मंजरी शुक्ला के कुछ 'शेर' 9 Oct 2012 | 08:21 am

दामन वफ़ाओं का कभी दागदार न होता अगर हमें उस पर इतना ऐतबार न होता ----- जज़्बातों को मेरे यूँ हवा ना दे तू गर ये उड़ जायेंगे तो नींद चली जाएगी तेरी ----- जब भी कुछ कहने चला हूँ उससे एक ख़ामोशी सी ओढ...

राजीव रंजन प्रसाद की लघुकथा 'नाम में क्या रखा है?' 9 Oct 2012 | 07:42 am

कागभुशुण्डि जी, कोलिला शर्मा से बतिया रहे थे। ‘बताईये कलकता को कोलकाता कर दिया, मद्रास को चेन्नई कर दिया, बम्बई को मुम्बई कर दिया, बेंगलोर को बेंगलुरु कर दिया लेकिन कभी डलहौजी या बख्तियारपुर के नाशम ...

मैने पढी किताब में ‘सरिता शर्मा’ नें पढी ‘द स्ट्रीट’ 9 Oct 2012 | 07:31 am

जादुई यथार्थ का उपन्यास मान लीजिए कोई व्यक्ति धुत्त होकर पंद्रह साल तक कोमा में चला जाये और उसे उस अवस्था में उसे खूब लंबा सपना आये। सपना भी इतना अजीबोगरीब कि वह  क़त्ल के झूठे इल्जाम में सजा भुगतने ...

लघुकथा - 'अहंकार' 9 Oct 2012 | 07:18 am

राजगृह के कोषाध्यक्ष की पुत्री भद्रा बचपन से ही प्रतिभाशाली थी। उसने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध प्रेम विवाह कर लिया। विवाह के बाद उसे पता चला कि युवक दुर्व्यसनी और अपराधी किस्म का है। एक दिन उस यु...

डॉ. प्रेम जन्मेजय का व्यंग्य 'एक अनार के कई बीमार' 9 Oct 2012 | 07:05 am

विदेशी चैनलों के युग में जैसे भारतीय संस्कृति गायब है, वैसे ही पिछले कई दिनों से राधेलाल गायब है। भारतीय जनता बुद्धू बक्से की नशेड़ी है, मैं राधेलाल का नशेडी हो गया हूँ। जानता हूँ कि राधेलाल से मिलकर ...

रतीनाथ योगेश्वर की तीन गजलें 9 Oct 2012 | 06:52 am

बातों - बातों में जो सिहरती  है हाँ वो लड़की  किसी पे मरती है हाथ में  खुशबू भरा खत लेकर अब  हवा  चलती औ ठहरती है बजने  लगती है धूप आँगन की जब भी  वो सीढ़ियाँ उतरती है इश्क  करना  तो बस इबादत है बा...

प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं 9 Oct 2012 | 06:39 am

जहां मेरी याद बैठी है उस कमरे में मेरी याद बैठी है जहां शाम के वक्‍त खिड़की से हल्‍दी जैसा पीला प्रकाश भर जाता है तुम्‍हारी देह को और कान्तिवान करता हुआ रसोई के दरवाज़े के ठीक सामने की उसी खिड़की मे...

प्रताप सहगल का यात्रावृतांत 'आबू कहें या अर्बुद या बोलें माउंट आबू' 9 Oct 2012 | 06:15 am

2008 को दस मई की सुबह। राजधानी एक्सप्रैस आबू रोड पर रुकी। हम अपने सामान समेत गाड़ी से उतरने के लिए तैयार खड़े थे। डिब्बे का दरवाज़ा खुलते ही आबू पर्वत की हवाएँ दस्तक देने लगीं। यह तो हमें बाद में पता ...

भाषा सेतु में 'वरवर राव' की कविता 'मूल्य' 9 Oct 2012 | 05:54 am

हमारी आकांक्षाएँ ही नहीं कभी-कभार हमारे भय भी वक़्त होते हैं । द्वेष अंधेरा नहीं है तारों भरी रात इच्छित स्थान पर वह प्रेम भाव से पिघल कर फिर से जम कर हमारा पाठ हमें ही बता सकते हैं । कर सकते हैं आका...

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